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Karna (Mahabharata) Story in Hindi | कर्ण (महाभारत) की कहानी और इतिहास

कर्ण

कर्ण का जन्म 

कर्ण महाभारत के वीर योद्धाओं में से एक हैं। जिनकी छवि वर्तमान में एक शूरवीर और दानी के रूप में प्रतिस्थापित है। विभिन्न मान्यताओं के अनुसार उनका जन्म “कुंती” (श्रीकृष्ण के पिता वासुदेव की बहन और भगवान कृष्ण की बुआ) के घर एक वरदान के रूप में हुआ था। एक दिन दुर्वासा ऋषि चहल-पहल करते हुए, कुंती के महल में आए। उस समय कुंती अविवाहित थी, तब कुंती ने पूरे एक वर्ष तक दुर्वासा ऋषि की सेवा की थी। सेवाभाव के दौरान दुर्वासा ऋषि ने कुंती के भविष्य को अंतर्मन से देखा और कुंती से कहने लगे “तुम्हे राजा पाण्डु से कोई संतान प्राप्त नहीं होगी, इसके लिए तुम्हे मैं एक वरदान देता हूँ कि तुम किसी भी देवता का स्मरण कर उससे संतान प्राप्त कर सकती हो।” इतने कहने के बाद, दुर्वासा ऋषि वहां से चले गए, तभी उत्सुकतापूर्वक कुंती ने सूर्य देव का ध्यान लगाना शुरू किया। वह प्रतिदिन सूर्यदेव की पूजा अर्चना करने लगी, उनके भक्तिभाव से प्रसन्न होकर सूर्य देव प्रकट हुए और उन्होंने कुंती को एक पुत्र का वरदान दिया। जिसके कुछ समय बाद कुंती ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसमें सूर्य का तेज झलकता था और यही-नहीं जन्म से ही कर्ण के शरीर पर कवच और कुण्डल थे।

जन्म के समय कर्ण

जन्म के समय कर्ण

कर्ण का बचपन

अविवाहित होने कारण लोक-लाज से बचने के लिए कुंती ने अपने पुत्र को एक टोकरी में रखकर गंगा नदी में बहा दिया था। अविवाहित होने कारण लोक-लाज से बचने के लिए कुंती ने अपने पुत्र को एक टोकरी में रखकर गंगा नदी में बहा दिया। जहां कुछ ही मीलों दूर महाराज धृतराष्ट्र का सारथी अधिरथ और उनकी पत्नी राधा नदी किनारे कपड़े धो रहे थे। उसी समय उन्होंने एक टोकरी को बहते देखा और नदी से बाहर ले आए। जहां उन्होंने देखा एक नन्हा-सा बालक रो रहा है, जिसे देख दंपति जोड़ा काफी खुश हुआ और उन्होंने उसे गोद लेने का निर्णय किया। जिसके चलते उनका नाम वासुसेन रखा गया।

कर्ण अपनी सौतेली माँ राधा के साथ

कर्ण अपनी सौतेली माँ राधा के साथ

युद्ध कला में निपुण

किशोरावस्था से ही कर्ण युद्ध कला में पारंगत थे। वह अपने पिता की भांति रथ की जगह युद्ध कला में अधिक रूचि रखते थे। एक दिन उनके पिता अधिरथ उन्हें गुरु द्रोणाचार्य के पास ले गए, जो उस समय के सर्वश्रेष्ठ वीर योद्धाओं में से एक थे। गुरु द्रोण सिर्फ कुरु वंश के राजकुमारों को ही शिक्षा देते थे। जिसके चलते उन्होंने सूद पुत्र कर्ण को शिक्षा देने से इंकार कर दिया, क्योंकि कर्ण एक सारथी का पुत्र था और द्रोण क्षत्रियों को ही शिक्षा देते थे। उसके बाद युद्ध कला को सीखने के लिए वह परशुराम से मिले, जो केवल ब्राह्मणों को ही शिक्षा देते थे। यह जानकर कर्ण ने स्वयं को एक ब्राह्मण बताया और शिक्षा प्राप्त की। जिसके चलते वह युद्धकला और धनुर्विद्या में निपुण हुए।

कर्ण युद्ध प्रशिक्षण प्राप्त करते हुए

कर्ण युद्ध प्रशिक्षण प्राप्त करते हुए

वैवाहिक जीवन

उन्होंने अपने पिता की इच्छा को पूर्ण करते हुए रुषाली नामक एक सूद पुत्री से विवाह किया। इसके बाद कर्ण ने एक और व‌िवाह क‌िया ज‌िसका नाम था सुप्र‌िया। इन दोनों पत्न‌ियों से कर्ण को नौ पुत्र प्राप्त हुए। उनके नौ पुत्रों ने महाभारत के युद्ध में प्रतिभाग लिया। जिसमें वृशसेन अर्जुन के हाथों से वीरगति को प्राप्त हुए थे। वृशकेतु एकमात्र ऐसा पुत्र था जो जीवित था। युद्ध के दौरान कर्ण की मृत्यु के पश्चात् रुषाली भी कर्ण की चिता पर ही सती हो गई थी।

दुर्योधन से मित्रता

पुराणों के अनुसार, जब गुरु द्रोण ने हस्तिनापुर में युद्ध पराक्रम की एक प्रतियोगिता का आयोजन करवाया, तब उस प्रतियोगिता में अर्जुन को विशेष धनुर्धारी के रूप में सम्मानित किया गया। उसी समय वहां कर्ण आ जाते हैं और वह अर्जुन के द्वारा किए गए युद्ध कौशलों को भली प्रकार से कर लेते हैं और अर्जुन को दवंदयुद्ध के लिए ललकारते हैं। तभी सभा में उपस्थित कृपाचार्य कर्ण के हस्तक्षेप को निरस्त करते हुए उनसे वंश और साम्राज्य के बारे में पूछते हैं – क्योंकि दवंदयुद्ध के अनुसार एक राजा ही एक राजकुमार को ललकार सकता है, उसी समय कौरवों में दुर्योधन ने जाना कि एक कर्ण ही एक योद्धा है जो अर्जुन को मात दे सकता है। इसलिए दुर्योधन कर्ण को अंगदेश का राजा घोषित करते है ताकि कर्ण दवंदयुद्ध के योग्य हो जाए। उसके बाद कर्ण ने दुर्योधन से पूछा की तुम्हे इसके बदले क्या चाहिए, दुर्योधन ने जवाब दिया मुझे तुम्हारी दोस्ती चाहिए। जिसके चलते दोनों एक एक दूसरे के घनिष्ट मित्र बन गए।

हस्तिनापुर में युद्ध पराक्रम के दौरान कर्ण और दुर्योधन

हस्तिनापुर में युद्ध पराक्रम के दौरान कर्ण और दुर्योधन

कर्ण का चरित्र

सूद पुत्र कर्ण एक उदारवादी और दानवीर योद्धा थे। जिसके चलते वह नित्यकर्म सूर्य भगवान की पूजा अर्चना करते थे। आस्था के प्रति विश्वास रखते हुए कर्ण धर्म के प्रत्येक कर्मकांडों को करते थे। उनकी वीरता के किस्से आज भी विभिन्न पुराणों में विद्यमान है। अंगराज का राजा बनने के पश्चात् कर्ण सूर्य देव की उपासना के बाद दान करते थे। उन्होंने अपनी माता को यह वचन दिया कि महायुद्ध के दौरान वह अर्जुन के अतिरिक्त और किसी पाण्डव का वध नहीं करूंगा। जिसके चलते उन्होंने अर्जुन के वध के लिए देवराज इंद्र से इंद्रास्त्र भी माँगा था।

हस्तिनापुर स्थित दानवीर कर्ण का मंदिर

हस्तिनापुर स्थित दानवीर कर्ण का मंदिर

जरासंध और कर्ण

कर्ण ने कलिंगा की रानी भानुमती का दुर्योधन से विवाह करने में सहायता की थी, जब दुर्योधन स्वयंवर के दौरान राजकुमारी का अपहरण कर लेते हैं। उस समय कर्ण ने ही सैनिकों से युद्ध लड़ा था। जिसमें भीष्मका, वक्रा, कपोटारमन, नीला, रुक्मी, श्रींगा, अशोक, सतधनवान, इत्यादि महान शासकों को कर्ण ने पराजित किया। उसके बाद मगध के राजा जरासंध ने कर्ण को युद्ध करने के लिए चुनौती दी। जिसके चलते कर्ण और जरासंध के मध्य कुश्ती हुई, जिसमें कर्ण ने जरासंध को पराजित कर दिया। कर्ण से पराजित होने के बाद जरासंध ने कर्ण को मालिनी राज्य भेंट स्वरूप दिया। उस विजय से कर्ण बहुत लोकप्रिय हुए। मालिनी राज्य के सिंघासन पर बैठने के बाद कर्ण ने एक शपथ ली, कि मेरे दरबार से कोई भी व्यक्ति खाली हाथ नहीं जाएगा।

कर्ण मालिनी राज्य के राज्याभिषेक के दौरान

कर्ण मालिनी राज्य के राज्याभिषेक के दौरान

पांडवों के साथ शत्रुता

वह कभी-भी शकुनी के द्वारा नियोजित छल-कपट की नीति से पांडवों को हराने के पक्ष में नहीं थे। जिसके चलते वह सदा ही युद्ध के पक्ष में थे। वह हमेशा दुर्योधन को युद्ध के द्वारा पांडवों को पराजित करने का आग्रह करते थे। जिसके कारण वह दुर्योधन को खुश करने के लिए चौसर के खेल में सम्मिलित हुए, जिसके कारण द्रौपदी चीर हरण की घटना रूपांतरित हुई। उसके बाद भीम ने यह प्रतिज्ञा ली कि वह अकेले ही युद्ध में दुर्योधन और उसके सभी भाईयों का वध करेगा। तभी अर्जुन ने कर्ण का वध करने की प्रतिज्ञा ली।

कर्ण का द्रौपदी के साथ प्रेम संबंध

विभिन्न स्त्रोतों के अनुसार महाभारत से संबंधित कई लोकप्रिय कथाएं भी मिलती हैं, जिसमें से एक है “जांबुल अध्याय” जिसमें द्रौपदी अपने राज का खुलासा करती हैं। द्रौपदी पांच पांडवों की पत्नी थीं, लेकिन वह अपने पांचों पतियों को प्यार नहीं करती थी, वह सबसे ज्यादा अर्जुन को प्यार करती थी। लेकिन दूसरी तरफ अर्जुन द्रौपदी को प्यार नहीं करते थे, क्योंकि वह कृष्ण की बहन सुभद्रा प्यार करते थे। एक प्रचलित कथा के अनुसार, जब पांडवों को निर्वासन का दुःख भोगना पड़ा उस समय 12वें वर्ष के समय द्रौपदी ने एक पेड़ पर पके हुए, जामुनों का गुच्छा लटकते देखा और उसे तोड़ लिया। जैसे ही द्रौपदी ने गुच्छे को तोड़ा तभी वहां भगवान कृष्ण पहुंच गए। भगवान श्रीकृष्ण ने बताया कि इस फल के सेवन से एक साधु अपने 12 साल का उपवास तोड़ने वाले था। चूँकि, अब यह फल तुमने तोड़ लिया है जिससे पांडव उस साधु के प्रकोप का शिकार होंगे। यह सुनकर पांडवों ने श्रीकृष्ण से सहायता मांगी।

इतना कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों से कहा कि इसके लिए सभी को पेड़ के नीचे जाकर केवल सत्य वचन ही बोलने होंगे। तभी फल अपने स्थान पर दोबारा लग सकता है, इतना कहने पर श्रीकृष्ण ने फल को पेड़ के नीचे रख दिया गया और बारी-बारी सभी को बुलाया। सबसे पहले श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बुलाया, युधिष्ठिर सत्य बोलते हुए कहते है कि “दुनिया में सत्य, ईमानदारी, सहिष्णुता का प्रसार होना चाहिए, जबकि बेईमानी और दुष्टता का सर्वनाश होना चाहिए। यही-नहीं युधिष्ठिर ने पांडवों के साथ घटित अवांछनीय घटनाओं के लिए द्रौपदी को दोषी ठहराया। युधिष्ठिर के सत्य वचन कहने के बाद फल जमीन से दो फीट ऊपर आ गया।

उसके बाद भीम को बोलने के लिए कहा गया और श्रीकृष्ण के द्वारा चेतावनी दी गई कि “अगर तुमने झूठ बोला तो फल जलकर राख हो जाएगा।” तभी भीम ने सभी के समक्ष सत्यता को स्वीकारते हुए कहा कि खाना, युद्ध, नींद और यौन इच्छा के प्रति वह कभी भी कम आसक्ति नहीं होती है और वह धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों को मार देने की प्रतिज्ञा लेते हैं और साथ ही वह उनके वज्र का अपमान करने वाले व्यक्ति को मृत्यु के घाट उतार देने की भी प्रतिज्ञा लेते हैं। इसके बाद फल दो फीट और ऊपर चला जाता है।

अब अर्जुन की बारी थी, अर्जुन ने कहा कि “मुझे प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि काफी पसंद है और जब तक मैं युद्ध में कर्ण को नहीं मार दूंगा, तब तक मेरे जीवन का उद्देश्य पूरा नहीं होगा। इसके लिए मैं किसी भी हद तक जा सकता हूँ। चाहे मुझे धर्म के विरुद्ध ही क्यों ना जाना पड़े।”इतना कहने पर फल थोड़ा ओर ऊँचा जाता है।

अर्जुन के बाद नकुल और सहदेव ने भी कोई रहस्य नहीं छिपाया। अंत में, द्रौपदी की बारी आई, द्रौपदी ने सत्य बताते हुए कहा कि “मैं अपने पांच पतियों की ज्ञानेंद्री (आंख, कान, नाक, मुंह और शरीर) हूँ। लेकिन मैं उन सभी के दुर्भाग्य का कारण हूं और बिना सोच-विचारकर किए गए अपने कार्यों के लिए पछता रही हूं। लेकिन द्रौपदी के यह सब बोलने के बाद भी फल ऊपर नहीं गया, तब श्रीकृष्ण ने कहा कि द्रौपदी कोई रहस्य छिपा रही हैं। तब द्रौपदी ने अपने पतियों की ओर देखते हुए कहा – मैं आप पांचों से प्यार करती हूं, लेकिन मैं किसी 6वें पुरुष से भी प्यार करती हूं और वह कर्ण है। जिसे जाति की वजह से विवाह नहीं होने का पछतावा होता है। अगर मैंने कर्ण से विवाह किया होता तो शायद मुझे इतने दुख नहीं झेलने पड़ते और न ही इस तरह के कड़वे अनुभवों से होकर नहीं गुजरना पड़ता।

कर्ण के कवच-कुण्डल

पौराणिक कथाओं के अनुसार, अर्जुन के पिता और देवराज इन्द्र को इस बात का पता चला कि कर्ण को युद्धक्षेत्र में तब तक अपराजित नहीं किया जा सकता जब तक उसके पास उसके कवच और कुण्डल रहेंगे, जो जन्म से ही उसके शरीर पर थे। इसलिए जब कुरुक्षेत्र का महायुद्ध शुरू हुआ, तब इन्द्र ने एक योजना बनाई और प्रण किया कि वह कर्ण को कवच और कुण्डल के साथ युद्धक्षेत्र में नहीं जाने देंगे। इंद्र मध्याह्न में जब कर्ण सूर्य देव की पूजा कर रहा होता है तब उस समय एक भिक्षुक बनकर कर्ण से कवच-कुण्डल माँग लेंगें। सूर्यदेव इन्द्र की इस योजना के बारे में कर्ण को सावधान भी करते हैं, लेकिन वह उन्हें धन्यवाद देकर कहता है कि उस समय यदि कोई उससे प्राण भी माँग ले तो वह मना नहीं करेगा। तब सूर्यदेव कहते है कि यदि वह स्ववचनबद्ध है, तो वह इन्द्र से अमोघास्त्र माँग ले।

तब अपनी योजनानुसार इन्द्रदेव एक भिक्षुक का भेष बनाकर कर्ण से कवच और कुण्डल माँग लेते हैं। चेतावनी मिलने के बाद भी कर्ण मना नहीं करता और ख़ुशी ख़ुशी अपना कवच-कुण्डल दान कर देता है। तब कर्ण की इस दानप्रियता पर प्रसन्न होकर वह उसे कुछ माँग लेने के लिए कहते हैं, लेकिन कर्ण यह कहते हुए कि “दान देने के बाद कुछ माँग लेना दान की गरिमा के विरुद्ध हे”, मना कर देते हैं। इतना सुनने के बाद इन्द्र कर्ण को अपना शक्तिशाली अस्त्र वासवी प्रदान करते है जिसका प्रयोग वह केवल एक बार ही कर सकता था। इसके बाद कर्ण का एक और नाम वैकर्तन पड़ा।

कर्ण अपना कवच कुण्डल दान देते हुए

कर्ण अपना कवच कुण्डल दान देते हुए

मृत्यु

युद्ध के दौरान जब कर्ण के रथ का एक पहिया धरती में धँस जाता (धरती माता के श्राप के कारण) है। तब वह अपने दैवीय अस्त्रों के प्रयोग में असमर्थ हो जाता है, जैसा कि उसके गुरु परशुराम का श्राप था। उस समय कर्ण अपने रथ के पहिए को निकालने के लिए नीचे उतरता है और अर्जुन से आग्रह करता है कि वह युद्ध के नियमों का पालना करते हुए कुछ देर के लिए बाण चलाना बन्द कर दे। तभी श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि “कर्ण को कोई अधिकार नहीं है कि वह अब युद्ध नियमों और धर्म की बात करे। क्योंकि अभिमन्यु के वध के समय कर्ण ने भी किसी भी युद्ध नियम और धर्म का पालन नहीं किया था। तब कहाँ गया था कर्ण का धर्म जब उसने दिव्य-जन्मा (द्रौपदी का जन्म हवनकुण्ड से हुआ था) द्रौपदी को पूरी कुरु राजसभा के समक्ष वैश्या कहा था।” इतना सुनकर अर्जुन ने कहा कि कर्ण अभी असहाय है (ब्राह्मण के श्राप अनुसार) इसलिए वह बाण नहीं चलाएगा। तभी श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा इस निर्णायक मोड़ पर अभी कर्ण को नहीं मारा गया तो सम्भवतः पाण्डव उसे कभी भी नहीं मार सकेंगे और यह युद्ध कभी भी नहीं जीता जा सकेगा। तब, अर्जुन ने एक दैवीय अस्त्र का उपयोग करते हुए कर्ण का सिर धड़ से अलग कर दिया। कर्ण के शरीर के भूमि पर गिरने के बाद एक ज्योति कर्ण के शरीर से निकली और सूर्य में समाहित हो गई।

मृत्यु के दौरान कर्ण

मृत्यु के दौरान कर्ण

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